शनिवार, 8 नवंबर 2008

हिन्दी किताबें क्यों नहीं बिकतीं ? कौन जिम्मेदार ?


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


हिन्दी प्रकाशक-
- प्रकाशक स्वयं को लेखक और पाठक से बड़ा समझते हैं।
- प्रकाशक, प्रकाशक कम और प्रिंटर ज़्यादा हैं, बहुत कम प्रकाशक साहित्य समझते हैं।
- इन्हें चाहिए कि प्रकाशन के लिए आए साहित्य की पांडुलिपियाँ लेखक के नाम के बिना, पहले गुप्त रूप से साहित्य मर्मज्ञों को मूल्यांकन के लिए भेजें।
- प्रकाशन के लिए लेखन से ज़्यादा लेखक के नाम का महत्व है।
- प्रकाशक भी, लेखकों की ही तरह, गुटबाज़ी में मशगूल हैं।
- प्रकाशकों की धारणा है कि किताब बेचना केवल लेखक की ही ज़िम्मेदारी है, बेचारा लेखक लेखक न हुआ सेल्समैन हो गया।
- प्रकाशक मार्केटिंग के नाम पर शर्म की हद तक उदासीन रहते हैं।
- मार्केटिंग पर, अंग्रेज़ी प्रकाशक हिन्दी प्रकाशक से कहीं ज़्यादा ध्यान देता है।
- हिन्दी प्रकाशक लेखक, डिजाईन, पेपर, फोंट और प्रिंटिंग पर पाई भी ख़र्च नहीं करना चाहता।
- हिन्दी प्रकाशक विश्व प्रकाशन व्यवसाय से कुछ भी नहीं सीखना चाहता।
- ऐसे प्रकाशक स्कूलों में नियमित बिक्री-स्टाल नहीं लगाते।
- साहित्येतर प्रकाशन इनकी पहली पसंद और वरीयता हैं।
- अनुवाद को आज भी दोयम साहित्य प्रक्रिया माना जाता है।
- प्रकाशक लेखक को आदर से देखना भी हेय समझता है।
- प्रकाशक को आज भी नहीं पता कि लिटररी एजेंट किस बला का नाम है।
- प्रकाशक आज भी इस बात से अनभिज्ञ है कि इन्टरनेट को भी साहित्य के प्रसार-प्रचार के लिए प्रयोग किया जा सकता है, इन्टरनेट पर बिक्री के उद्देश्य से साहित्य प्रकाशित करना तो अभी कई दशक दूर लगता है ।
- इन्टरनेट का प्रयोग आज भी किताबों की लिस्ट तक ही सिमित है ।

हिन्दी लेखक
- गुटबाज़ी / गुरुबाज़ी फुल टाइम बिज़नेस है। गुटबाज़ी तो गाली-गलौज़ की सीमा भी लाँघ जाती है।
- ज़्यादातर लेखकों को साहित्य से भी बड़े होने का गुमान रहता है।
- नवोदित लेखक भी गुटबाज़ी को लेखन के लिए बहुत ज़रूरी समझने लगते हैं क्योंकि स्थापित लेखक उनको नितांत बुर्जुआ दृष्टि से देखते हैं न कि आदर की दृष्टि से।
- आलोचना और निंदा में अन्तर कर पाना बहुत मुश्किल दिखता है ।
- आलोचना के नाम पर बस कमियां गिनाना ही आलोचना-धर्म रह गया है इसलिए हर कोई लेखक आलोचक भी बना फिरता है।
- आलोचना के नाम पर केवल सुविधा-गुट की शान में ही क़सीदे पढ़े जाते हैं।
- समझने से पहले ही असहमत होने का मन बना बैठ जाना फै़शन हो गया है।
- पुरूस्कार का मतलब केवल "तिकड़म की विजय" रह गया है।
- दूसरी भाषाओँ और दूसरे देशों में प्रकाशन के लिए कोई प्रयास नहीं करता।
- इंटरनेट पर अपने साहित्य के प्रकाशन के नाम पर आज भी कोई पहल नहीं दिखती और सारा दारोमदार प्रकाशक पर ही समझता है।
- इलेक्ट्रोनिक मिडिया को साहित्य के लिए प्रयोग कराने में भी कोई पहल नहीं दिखती।
- दूसरी भाषाओं के साहित्य को पूरा आदर नहीं देता।

हिन्दी पाठक
- हिन्दी का पाठक और हिन्दी बोलने वाले, दो अलग श्रेणियों में विभाजित हैं ।
- हर हिन्दी बोलने वाला हिन्दी पाठक नहीं है।
- अंग्रेज़ी पाठक हिन्दी पाठक से अधिक अर्थ- संपन्न है।
- साहित्य को संस्कृति के बजाय मनोरंजन का साधन समझता है।
- ये केबल टी ० वी ० के लिए तो हर महीने ३५० रूपये देता है लेकिन साहित्य के लिए ५० रूपये की राशि भी बहुत ज़्यादा समझता है।
- "साहित्य से क्या लाभ" की प्रक्रिया निरंतर चालू है।
- साहित्य और साहित्येत्तर का अन्तर नहीं कर पाता है और आम पत्र-पत्रिकाओं को साहित्य का पर्याय मान लेता है।
- स्तरीय साहित्य-प्रकाशनों की समुचित अनुपलब्धता और उनकी असामयिक मृत्यु पाठक की स्थिति को और दुरूह बनाती हैं।
- अपने ही परिवार में साहित्य के प्रति बच्चों की रूचि जगाने के लिए कुछ भी नहीं करता इसलिए नए पाठक मिलना संयोग और भाग्य पर निर्भर करता है।
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2 टिप्‍पणियां:

  1. इन सबके लिए और कोई नहीं हिन्दी पाठक ही जिम्मेदार है, कहते हैं न, 'आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है', या 'डिमांड हो तभी मार्केट उसे पूरी करने की कवायद करता है.'

    हिन्दी की क्लासिक मानी जाने वाली पुस्तकें जो पाठ्यक्रमों में शामिल हैं वे आज भी हाथों हाथ बिकती हैं

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